Wednesday 4 December 2019

।।औरत।।

कभी कोख में तो, कभी चौक में मैं।
क्यों मारी क्यों नोची, जली जा रही हूँ।।
किसी रोज़ हो जाऊं, गी जग से ओझल।
तो रहना अकेले, कहे जा रही हूँ।।
है डर का वो साया, हर एक पल जहन में।
ना जाने कहाँ मैं, मरी जा रही हूं।।
कभी कोख में तो कभी............
हैं रिश्ते ये नाते, हैं रीती रिवाजें।
उन्हें बस अकेले, जिये जा रही हूँ।।
हाँ मैं ही अकेली हूँ, जिम्मे सभी के।
सभी का सभी को, दिये जा रही हूँ।।
कभी कोख में तो कभी.............
अगर मैं ना होती, तो होता भला क्या।
तुम मर्दों को इतना, सहे जा रही हूँ।।
बसा लो गर दुनिया, हमारे बिना तुम।
तुम मर्दों को असली, कहे जा रही हूँ।।
कभी कोख में तो, कभी चौक में मैं।
क्यों मारी क्यों नोची, जली जा रही हूँ।।

जितेन्द्र शिवराज सिंह बघेल
   ०५ दिसंबर२०१९

आत्म ग्लानि से प्रेरित, मेरा हर शब्द आज के दौर में नारी के अपमान को दर्शाता है, हम किस समाज मे रहते हैं, किस धर्म के हैं इन सबसे परे है कि हम वास्तव में हैं क्या?
हम में और बाकी जीवों में बुध्दि का फर्क है विवेक शीलता है, अपने पराये पन का भान है, अच्छाई और बुराई की सच्चाई पता है।
मगर हमारे नैतिक मूल्यों में निरंतर जो गिरावट आ रही है वो कदाचित हमें पशुओं से भी निम्न स्तर की ओर ले जा रही है।
गंदगी हमारे मानसिकता में है वरना शारीरिक बनावट तो सबकी एक समान होती है।।

No comments:

Post a Comment

।। मेरे शहर में सब है ।।

मेरे शहर में सब है, बस नही है तो, वो महक... जो सुबह होते ही, मेरे गांव के हर घर से आती थी। थोड़ी सोंधी, मटमैली, जो अंतर्मन में घुल जाती थी।।...