Wednesday 27 June 2012

सोंच की पराकाष्ठा !!!!

कभी न सोंचा दिल ने जिनको, वो बातें क्यों होती हैं !
सोंच सोंच के जाहिल दिल को यूँ ही टोंका करती हैं !!
अपनों की खुशियों की खातिर, खुद के सपनो को तोड़ गये !
ये दर्द बयाँ अब नहीं करना, जिनसे साँसे भी डरती हैं !!
कभी न सोंचा दिल ने जिनको, वो बातें क्यों होती हैं !
सोंच सोंच के जाहिल दिल को यूँ ही टोंका करती हैं !!
थी पाक मोहब्बत अपनी जब, तो असर नहीं क्यों होता है !
उसके जीवन में खुशियाँ क्यों, अब भी अँधेरा करती हैं !!
कभी न सोंचा दिल ने जिनको, वो बातें क्यों होती हैं !
सोंच सोंच के जाहिल दिल को यूँ ही टोंका करती हैं !!
हूँ अब भी बैठा कातिल सा, उसके सपनो को मार गया !
इस दर्द को लेके जीता हूँ, जाने साँसे क्यों चलती हैं !!
कभी न सोंचा दिल ने जिनको, वो बातें क्यों होती हैं !
सोंच सोंच के जाहिल दिल को यूँ ही टोंका करती हैं !!
एक करम नहीं कर सकता है, ये खुदा भी है बेगाना क्यों !
उसकी रहमत की खातिर ही, शायद ये साँसे चलती हैं !!
कभी न सोंचा दिल ने जिनको, वो बातें क्यों होती हैं !
सोंच सोंच के जाहिल दिल को यूँ ही टोंका करती हैं !!
कब बरसेगी रहमत तेरी, महबूब मेरा जब खुश होगा !
उस पल की खातिर साँसे भी, खुद से ही दुआएँ करती हैं !!
कभी न सोंचा दिल ने जिनको, वो बातें क्यों होती हैं !
सोंच सोंच के जाहिल दिल को यूँ ही टोंका करती हैं !!


 जितेन्द्र सिंह बघेल
   "28 जून 2012" 



Thursday 21 June 2012

क्यों आज मुझे तू कहती हैं !!!!

क्यों आज मुझे तू  कहती हैं, मत सोंच किसी अफ़साने को !
चलने का नाम जवानी है, कर गुजर जो है तू करने को !!
जो आग भरी  है अंतर में, वो आग नहीं है बुझने को !
क्यों आज मुझे तू  कहती हैं, मत सोंच किसी अफ़साने को !!
हैं अश्क भरे इन आँखों में, जो बने नहीं हैं गिरने को !
ये जीवन भी क्या जीवन है, जो बना ही है मिट जाने को !!
क्यों आज मुझे तू  कहती हैं, मत सोंच किसी अफ़साने को !
रब मिला नहीं तो क्या गम है, है मिला कोई झुक जाने को !!
दिल आज उसे ही चाहे है,  जो बना ही है तडपाने को !
क्यों आज मुझे तू  कहती हैं, मत सोंच किसी अफ़साने को !!
है गम की परछाई सी क्यों, जब मिला नहीं कुछ खोने को !
दिल महक रहा फिर अब क्यों, जब रहा नहीं कुछ कहने को !!
क्यों आज मुझे तू  कहती हैं, मत सोंच किसी अफ़साने को !
क्यों आज मुझे तू  कहती हैं, मत सोंच किसी अफ़साने को !


                                                  जितेंद्र सिंह बघेल 
                                                    "21 जून 2012"




Tuesday 12 June 2012

आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
कुछ राहें थी अनजानी सी, कुछ यादें थी  बेगानी सी !
जिनका जिकर करूँ तो, अब लब कंपने लगते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
राहें मगरूर हुई हैं क्यों, दिल टूटा -टूटा लगता है !
ये कदम मेरे न जाने क्यों, अब बहके - बहके लगते हैं  !!
आते - जाते कुछ चेहरे, क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
राहे गुलज़ार हुई अब क्या, जब बचा नहीं कुछ जीवन में !
जलकर जो रंगत छोड़ गये, वो रंग अभी भी बसते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
कुछ करम किये थे हमने भी, सोंचा था जसन मनाएंगे !
वो मसल गये अंतर्मन को, जो अंतर्मन में बसतें हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे, क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
ये आँखे भी हैं तरस गयी, ये हाथ खुदी से कहते हैं !
जो रहा नहीं अब अपना सा, उसके सपने क्यों पलते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
है पुलकित और प्रफ्फुलित मन, हर रोम - रोम कुछ कहता है !
साँसो के इस उदगम में भी, वो निर्झर बनकर बहते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
हैं साथ नहीं  मेरे अब वो, फिर साँसों में क्यों जीते हैं !
दिलरुबा कहूँ या दिलबर भी, ये नाम पराये लगते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
                                        "जितेन्द्र सिंह बघेल"
                                              12 जून 2012









Tuesday 5 June 2012

तेरी रहमत गिरेगी कब, तुझे दर्खास्त करता हूँ !
तेरी रहमत की खातिर ही, मैं ये बकवास करता हूँ !!
न जाने क्यों दिया तुने, मुझे वो दर्द का सागर !
उसी में तैरता भी हूँ, उसी में डूबता भी हूँ !!
वो दिन मेरी मोहब्बत का, बड़ा मशहूर होता था !
कोई लौटा दे उस पल को, जिसे मैं याद करता हूँ !!
मुझे मालूम है तेरी, सभी वो फिक्रमंदियाँ !
तू करदे फिर से  सब कुछ वो, जो मैं अरमान करता हूँ !!
तेरे दर पे झुका हूँ मैं, तेरी फितरत से वाकिफ हूँ !
नहीं अरमान है अब कुछ, तेरी दुनिया में आता हूँ !!
तेरी रहमत गिरेगी कब, तुझे दर्खास्त करता हूँ !
तेरी रहमत की खातिर ही, मैं ये बकवास करता हूँ !!
                                   जितेन्द्र सिंह बघेल 
                                      "5 जून 2012"



।। मेरे शहर में सब है ।।

मेरे शहर में सब है, बस नही है तो, वो महक... जो सुबह होते ही, मेरे गांव के हर घर से आती थी। थोड़ी सोंधी, मटमैली, जो अंतर्मन में घुल जाती थी।।...