Tuesday 12 June 2012

आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
कुछ राहें थी अनजानी सी, कुछ यादें थी  बेगानी सी !
जिनका जिकर करूँ तो, अब लब कंपने लगते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
राहें मगरूर हुई हैं क्यों, दिल टूटा -टूटा लगता है !
ये कदम मेरे न जाने क्यों, अब बहके - बहके लगते हैं  !!
आते - जाते कुछ चेहरे, क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
राहे गुलज़ार हुई अब क्या, जब बचा नहीं कुछ जीवन में !
जलकर जो रंगत छोड़ गये, वो रंग अभी भी बसते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
कुछ करम किये थे हमने भी, सोंचा था जसन मनाएंगे !
वो मसल गये अंतर्मन को, जो अंतर्मन में बसतें हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे, क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
ये आँखे भी हैं तरस गयी, ये हाथ खुदी से कहते हैं !
जो रहा नहीं अब अपना सा, उसके सपने क्यों पलते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
है पुलकित और प्रफ्फुलित मन, हर रोम - रोम कुछ कहता है !
साँसो के इस उदगम में भी, वो निर्झर बनकर बहते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
हैं साथ नहीं  मेरे अब वो, फिर साँसों में क्यों जीते हैं !
दिलरुबा कहूँ या दिलबर भी, ये नाम पराये लगते हैं !!
आते - जाते कुछ चेहरे,  क्यों अपने लगते हैं  !
इन कशिश भरी दो आँखों में, कुछ सपने बसते हैं !!
                                        "जितेन्द्र सिंह बघेल"
                                              12 जून 2012









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