कुछ बचा नहीं है करने को, मन में है एक अपराध बोध !
है यही सोंच कर मन व्याकुल, जीवन से बड़ा न कोई बोझ !!
कुछ लोग मिले जीवन में क्यों, हूँ रहा अभी भी यही सोंच !
जाना शायद नियति उनकी, है अभी रहा है यही सोंच !!
हैं बृक्ष बड़े कुछ अम्बर तक, जिनकी सीमा का अंत नहीं !
ये मन भी लगे कुछ ऐसा ही, जिसकी सीमा का अंत वही !!
इसकी सीमा में घुस जाना, है लगे मुझे अपराध बड़ा !
होके भी न इसका हो पाऊं, इसका बौद्धिक स्तर है बड़ा !!
जीवन की नित्य निरंतरता, है कहे मुझे कुछ नया सोंच !
कैसे बुद्धी को समझाउं, जो मना करे कुछ नहीं सोंच !!
कुछ बचा नहीं है करने को, मन में है एक अपराध बोध !
है यही सोंच कर मन व्याकुल, जीवन से बड़ा न कोई बोझ !!
जितेन्द्र सिंह बघेल
10th दिसम्बर 2012
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