Monday, 10 December 2012

मन का अपराध !!!

कुछ बचा नहीं है करने को, मन में है एक अपराध बोध ! 
है यही सोंच कर मन व्याकुल, जीवन से बड़ा न कोई बोझ !! 
कुछ लोग मिले जीवन में क्यों, हूँ रहा अभी भी यही सोंच ! 
जाना शायद नियति उनकी, है अभी रहा है यही सोंच !! 
हैं बृक्ष बड़े कुछ अम्बर तक, जिनकी सीमा का अंत नहीं !
 ये मन भी लगे कुछ ऐसा ही, जिसकी सीमा का अंत वही !!
 इसकी सीमा में घुस जाना, है लगे मुझे अपराध बड़ा ! 
होके भी न इसका हो पाऊं, इसका बौद्धिक स्तर है बड़ा !! 
जीवन की नित्य निरंतरता, है कहे मुझे कुछ नया सोंच ! 
कैसे बुद्धी को समझाउं, जो मना करे कुछ नहीं सोंच !! 
कुछ बचा नहीं है करने को, मन में है एक अपराध बोध ! 
है यही सोंच कर मन व्याकुल, जीवन से बड़ा न कोई बोझ !! 
                

जितेन्द्र सिंह बघेल 
 10th दिसम्बर 2012

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